आजकल की गुफ़्तगू


यूँ तो हर रोज़ सुबह होती ही है,
दिन भी गुज़र ही जाता है किसी तरह से।
पर कुछ तो है — एक ख़लिश सी,
जो मन के किसी कोने में चुपचाप छुपी रहती है।

एक कशमकश है, जो हर रोज़ रूबरू होती है,
दिल पर छा जाती है — बेबस कर जाती है।

सोचें तो जीवन में सब कुछ पाया है,
आजकल के लिए कुछ भी बाकी नहीं लगता।

एक उम्मीद से भी ना-उम्मीद सी ख़्वाहिश,
एक फ़रियाद से भी बड़ी नज़्म कहने चली,
कुछ पा लेने की, कुछ खो देने की।

बस यही है आजकल मेरी गुफ़्तगू…


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